19 मई 2013 की वह सुबह याद करके आज भी मन सिहर उठता है। आज फिर वह दिन है। मम्मी को गए हुए आज पूरे तीन साल हो गए। कितना कुछ तुम छोड़ गई। मेरी पत्नी मुझसे हमेशा पूछती है कि तुम हमेशा फोन करके यह क्यों पूछते हो कि खाना खाया कि नहीं, इलिका-औरस ने कुछ खाया कि नहीं? मैं उससे कहता हूँ – मेरी माँ भी मुझसे यही सवाल कई बार पूछती थी। अपनापन है, प्यार है इसमें।
जब आगरे से सीधा विदेश में रहने आया तो कई बार फ़ोन पर पूछती कि रात का खाना खाया कि नहीं, मैं कहता – अरे नहीं मम्मी अभी तो यहाँ तो दोपहर के तीन बज रहे हैं। फिर कहती ऐसा …तुम तो दूसरी दुनिया में चले गए। फिर बोलती कि कुछ खा लेना ठीक। बारहवीं के पश्चात घर से बाहर निकल दिल्ली आने के बाद माँ से बातचीत फ़ोन पर और साथ रहना विश्वविद्यालय की छुट्टियों में ही हो पाता था। एस.टी.डी करने के लिए पैसे भी कम थे और शायद वह समय भी ऐसा था जब अल्हड़पन का ज्वर अपने उफान पर था। जब आगरे में नौकरी करनी शुरू की तब मैं काफ़ी गंभीर और संयमित हो चला था। बाद में ईश्वरीय संयोग (अस्वस्थता) से आगरे में माँ का सानिध्य भरपूर मिला। कई-कई महीने हम लोग साथ रहे। मैंने खाना पकाना माँ से वहीं सीखा (जो आज बहुत मददगार साबित हो रहा है)। और चाय के साथ घंटों बातचीत – दफ़्तर से जुड़ी बातें, किस्से-कहानियाँ , चुटकुले, मेरे विश्वविद्यालय के दिनों की घटनाएँ, अंदमान की स्मृतियाँ, वृंदावन के मेरे अनुभव, मेरी प्रेम गाथाएँ और बहुत कुछ। इन सबके बीच एक बेहतरीन श्रोता और फ़ीडबैक देने के लिए मौज़ूद थी माँ।
उन दिनों मैं हिन्दी संस्थान के भोजपुरी-हिन्दी-अंग्रेज़ी शब्दकोश पर काम भी कर रहा था। हर दिन कुछ अनोखे शब्द मिलते और हमारी बातचीत उनके सही मतलब और प्रयोग पर होती रहती। मैंने पाया कि माँ पिताजी से कहीं ज़्यादा प्रभावशाली भोजपुरी जानती थी। शायद यह उनकी ठेठ ग्रामीण पॄष्ठभूमि से भी वास्ता रखता था जबकि पिताजी सदैव राजधानी में ही रहे थे। आगरे में हमारे निवास की बालकोनी में सूखने के लिए फैलाईं साड़ियाँ देखकर सब मुहल्ले वाले समझ जाते थे कि अभिषेक की माताजी आ गईं है, फिर लोगों का आना शुरू होता। सबलोगों से मिलना और उन्हें चाय पिए बगैर न जाने देने की रस्म निभाई जाती।
माँ को आगरा बहुत रास आता था, कभी-कभी अस्वस्थ रहती थी, लेकिन आगरे का ठेठ देसीपना उन्हें बहुत भाता था। दिन बीतते देर न लगी। फिर मैं विदेश आ गया, माँ अस्वस्थ रहती थी, मेरा भारत आना-जाना हर छह महीनों में लगा रहता था। जनवरी 2013 में जब आखिरी बार मिला तो माँ ने आँसुओं से भरी आँखों से मुझे विदाई दी। ठीक पाँच महीनों में वे चली गईं। मैं असहाय यहीं पड़ा रहा। माँ ने उसके पिछले हफ़्ते ही मुझसे फ़ोन पर कहा था कि बेटा मैं अब तुमसे नहीं मिल पाऊँगी, कुछ खा लेना। 19 मई की उस सुबह मैं परदेश में ही था, जब यह ख़बर मुझे मिली कि वह सच कह रही थी। जाने किस जल्दी में थी। लोग कहते हैं मेरी आँखें मेरी माँ जैसी हैं, यूँ ही भरी हैं पानी से मगर तुम्हारी राह देखती हैं।