© अभिषेक अवतंस

भाषा क्या है? बोली क्या है? क्या भाषा बोलियों की जननी है? उनकी माँ है? क्या बोली अनपढ़-गँवार लोग बोलते हैं और भाषा पढ़े-लिखे लोगों द्वारा बोली जाती है? इन सब सवालों से हम अकसर जूझते हैं। कई लोग मानते हैं कि — बोली भाषा के उस रूप को कहते हैं जो लिखी नहीं जाती, सिर्फ़ बोली जाती है। या किसी भाषा में साहित्य होता है, बोली में कोई लिखित साहित्य नहीं होता। भाषा का एक व्याकरण होता है लेकिन बोली का कोई व्याकरण नहीं होता। भाषा परिनिष्ठित होती है और बोली भ्रष्ट होती है। भाषा सुन्दर होती है और बोली विकृत होती है। भाषा बनने के लिए अपनी स्वतंत्र लिपि होना आवश्यक है, समान लिपि होने से बोली भाषा नहीं मानी जाती। इस तरह की भ्रांतिपूर्ण और ग़लत अवधारणाएँ हिन्दी और अन्य भारतीय भाषाओं में प्रकाशित भाषा विषयक पुस्तकों में सामान्य रूप से देखने-पढ़ने को मिलती हैं।

बिना किसी लाग लपेट के कहें तो लिपि, भौगोलिक क्षेत्र विस्तार, लिखित साहित्य, ऐतिहासिक उल्लेख आदि के आधार पर भाषा और बोली में भेद नहीं किया जा सकता। ऐसी कई भाषाएँ संसार में बोली जाती हैं जो अनोखी हैं, बहुत सीमित क्षेत्र में अल्पसंख्यक समुदायों में व्यवहार की जाती हैं,  उनकी अपनी कोई लिपि नहीं है,  और ना ही उनमें कोई प्रकाशित साहित्य है। उनकी ऐतिहासिकता का भी कोई उल्लेख या वर्णन नहीं है। क्या इन भाषाओं को बोलियाँ मान लिया जाए?  आदिवासी और मूलनिवासी समुदायों की भाषाएँ इनमें प्रमुख हैं। 

रही बात व्याकरण की तो, संसार की प्रत्येक बोली या भाषा का अपना व्याकरण होता है। संभव है कि उनका व्याकरण लिखा नहीं गया हो, परन्तु उन बोलियों या भाषाओं के बोलने वालों के दिमाग में यह व्याकरण पूर्ण रूप से हमेशा उपलब्ध होता है। कोई भी बोली का प्रयोक्ता उस व्याकरण के नियमों के अनुसार ही वाक्यों का निर्माण करता है, उन्हें उच्चारता है।

उदाहरण के लिए अंडमान में जारवा भाषा लगभग 250 व्यक्तियों द्वारा बोली जाती है। अंडमानी भाषा परिवार की यह भाषा  एक अत्यंत सजीव और जीवंत भाषा है, इसके बोलने वाले अधिकांश एकभाषी हैं। इस भाषा का अपना स्वतंत्र व्याकरण और शब्द भंडार है, जो भारत की अन्य भाषाओं से काफ़ी अलग है। इसकी कोई लिपि नहीं है, और ना ही लिखित साहित्य है। क्या जारवा भाषा को एक बोली मान लिया जाए? इस प्रश्न का उत्तर नहीं है। 

लेकिन आख़िरकार, भाषा और बोली में कुछ तो अंतर होगा? हम कैसे कह सकते हैं कि ऑस्ट्रेलियाई इंग्लिश और अमेरिकी इंग्लिश दोनों एक ही भाषा की बोलियाँ हैं? दोनों में शब्दों के स्तर पर भी अंतर है, जैसे ऑस्ट्रेलियाई इंग्लिश में जिसे टैक्सी (Taxi) बोलते वही अमेरिकन इंग्लिश में कैब (Cab) है। या ऑस्ट्रेलियाई इंग्लिश में जिसे पेट्रोल (Petrol) बोलते हैं उसे अमेरिकन इंग्लिश में गैस (Gas) बोलते हैं। क्या उन्हें भिन्न भाषाएँ नहीं माना जा सकता?

किसी भाषा और बोली में माँ बेटी का संबंध नहीं होता। यदि संबंध है भी तो सगी बहनों का या चचेरी / मौसेरी बहनों का हो सकता है। कोई प्रतिष्ठित बोली (जैसे आधुनिक युग में खड़ी बोली, पूर्व में ब्रजभाषा रही है) ही भाषा के सिंहासन पर विराजमान होती है। इसका अर्थ यह नहीं कि जो बोलियाँ भाषा के सिंहासन पर नहीं बैठ पाईं वे दरबारी हैं, घटिया या कमतर हैं। समय के अनुसार भाषाओं की प्रतिष्ठा में उन्नति और अवनति होती रहती है।  

भाषा और बोली में विभेद करने की सबसे सरल और मान्य आधुनिक भाषावैज्ञानिक युक्ति यह कसौटी है कि एक ही भाषा बोलने वाले लोग एक-दूसरे को परस्पर समझ सकते हैं।  इसे ही पारस्परिक बोधगम्यता का सिद्धांत कहा जाता है। यदि किसी भाषा के दो प्रयोक्ता एक-दूसरे की बातों को समझ सकते हैं, तो वे एक ही भाषा की दो बोलियाँ बोल रहे हैं; यदि वे एक-दूसरे को नहीं समझ सकते, तो वे दो अलग-अलग भाषाएँ बोल रहे हैं। परन्तु इस पारस्परिक बोधगम्यता को जाँचना आसान नहीं है। कितना समझना पर्याप्त है और कितना न समझना पर्याप्त नहीं है, यह विवाद का विषय है। इसमें और भी कठिनाइयाँ हैं,  उदाहरणतः लिखित और मौखिक भाषाओं / बोलियों की  पारस्परिक बोधगम्यता में अंतर हो सकता है, यह प्रयोक्ता के अनुभव, शिक्षा एवं बहुभाषिकता से भी प्रभावित हो सकता है। कई अन्य मामलों में दो पृथक भाषाओं के बीच एक भाषिक और भौगोलिक निरंतरता भी होती है, जिससे पारस्परिक बोधगम्यता पैदा होती है। क्या कारण है कि पंजाबी गाने अवधी भाषियों को बहुत हद तक समझ आ जाते हैं, और एक बांग्ला भाषी बिना मुश्किल  हिन्दी समझ लेता है? यह इसी भाषिक, भौगोलिक, सामाजिक-सांस्कृतिक निरंतरता का प्रभाव है। 

विश्व की भाषाओं से कुछ उदाहरण देखें:

चीनी: देश के विभिन्न हिस्सों में इसकी विभिन्न बोलियाँ बोली जाती हैं, लेकिन इनमें से कई बोलियों के बीच पारस्परिक बोधगम्यता नहीं है, और कुछ में आंशिक बोधगम्यता है। परन्तु इन बोलियों / भाषाओं का बहुत सामंजस्यपूर्ण सांस्कृतिक इतिहास रहा है और इस कारण चीनी सरकार के अनुसार इन्हें एक भाषा की विभिन्न बोलियाँ माना जाता है। परन्तु भाषावैज्ञानिक ऐसा नहीं मानते।

चेक और स्लोवाक: दोनों भाषाओं में पारस्परिक बोधगम्यता है, उनका अलग-अलग इतिहास है।  दो पृथक भाषाएँ मानी जाती हैं।

डच और  जर्मन: दोनों भाषाओं में भाषिक और भौगोलिक निरंतरता है। आंशिक पारस्परिक बोधगम्यता भी है। दोनों की समान लिपि है। दो पृथक भाषाएँ मानी जाती हैं।

डच और फ्लेमिश: एक ही भाषा के दो रूप हैं, डच नीदरलैंड में बोली जाती है, फ्लेमिश बेल्जियम में बोली जाती है। दोनों की समान लिपि है। दोनों में बहुत समानताएँ हैं, पारस्परिक बोधगम्यता है, परन्तु ऐतिहासिक और राजनीतिक कारणों से पृथक अस्तित्व और पहचान। 

डेनिश और स्वीडिश: दोनों भाषाओं में एकतरफ़ा बोधगम्यता है (डेनिश लोग स्वीडनवासियों को कमोबेश समझ सकते हैं, लेकिन स्वीडिश लोग डेनिश आसानी से नहीं समझते।) दोनों की समान लिपि है। दोनों अलग भाषाएँ मानी जाती हैं।

ब्राज़ीलियाई पुर्तगाली और स्पेनी: एकतरफ़ा बोधगम्यता है। ब्राज़ीलियाई पुर्तगाली बोलने वाले लोग स्पेनी कमोबेश समझ सकते हैं लेकिन स्पेनी बोलने वाले उन्हें कम समझ पाते हैं। दोनों भिन्न भाषाएँ मानी जाती हैं।

भारतीय परिप्रेक्ष्य से कुछ उदाहरण:

हिन्दी और पंजाबी: दोनों में कुछ हद तक पारस्परिक बोधगम्यता है, सामंजस्यपूर्ण सांस्कृतिक इतिहास है,  परन्तु भिन्न लिपियाँ हैं, और सामाजिक-राजनीतिक-धार्मिक भेद हैं। दोनों भिन्न भाषाएँ मानी जाती हैं।

हिन्दी और उर्दू:  दोनों एक ही भाषा की दो शैलियाँ हैं, दोनों में बहुत हद तक पारस्परिक बोधगम्यता है, सामंजस्यपूर्ण सांस्कृतिक इतिहास है,  परन्तु भिन्न लिपियाँ हैं, और सामाजिक-राजनीतिक-धार्मिक भेद हैं। दोनों भिन्न भाषाएँ मानी जाती हैं।

कोंकणी और मराठी: कुछ दशक पहले तक कोंकणी को मराठी की एक बोली माना जाता था , दोनों में बहुत हद तक पारस्परिक बोधगम्यता है, सामंजस्यपूर्ण सांस्कृतिक इतिहास है, समान लिपि है, और लगभग समान सामाजिक-राजनीतिक-धार्मिक परिवेश  है। दोनों भिन्न भाषाएँ मानी जाती हैं।

दक्षिण कन्नड़ बोलियाँ और उत्तर कन्नड़ बोलियाँ: दोनों एक ही भाषा की दो बोलियाँ मानी जाती हैं, दोनों में बहुत हद तक पारस्परिक बोधगम्यता है लेकिन यह सामान्यत: एकतरफ़ा है। उत्तर कन्नड़ बोलने वाले भाषा-भाषी दक्षिण कन्नड़ आसानी से बोल और समझ लेते हैं, परन्तु दक्षिण कन्नड़ भाषा-भाषियों को उत्तर कन्नड़ समझने में बहुत समस्या होती है। उत्तर कन्नड़ बोली की प्रतिष्ठा कम है, और उसे मानक कन्नड़ भाषा-भाषी (दक्षिण कन्नड़ बोलियों पर आधारित मानक भाषा के प्रयोक्ता) द्वारा हास्यपूर्ण और भ्रष्ट समझा जाता है।

तमिल और मलयालम: दोनों में कुछ हद तक पारस्परिक बोधगम्यता है, सामंजस्यपूर्ण सांस्कृतिक इतिहास है, परन्तु भिन्न लिपियाँ हैं, और सामाजिक-राजनीतिक-धार्मिक भेद हैं। दोनों भिन्न भाषाएँ मानी जाती हैं। दोनों द्रविड़ भाषाओं में भेद का कारण मुख्य रूप से मलयालम में संस्कृत शब्दों का बाहुल्य है।

भोजपुरी और हिन्दी: दोनों में कुछ हद तक पारस्परिक बोधगम्यता है, सामंजस्यपूर्ण सांस्कृतिक इतिहास है, समान लिपि है, और समान सामाजिक-राजनीतिक-धार्मिक परिवेश हैं। परन्तु, भोजपुरी में लिखित साहित्य है,  उसके भिन्न व्याकरण और शब्द भंडार हैं। यद्यपि आमतौर पर भोजपुरी को हिन्दी की बोली माना जाता है। इसे बोली की नज़र से दोयम दर्ज़े का समझा जाता है। भोजपुरी में बनी फ़िल्मों और गानों के भौंडेपन को भाषा के साथ जोड़कर संपूर्ण भाषा-समाज को पक्षपातपूर्ण दृष्टि से देखा जाता है। भोजपुरी भाषी अपनी भाषा को अलग भाषा का दर्जा दिलवाना चाहते हैं।

मानक कन्नड़, तुलु और कोडावा टक्क: कर्णाटक राज्य की तीनों भाषाओं में कुछ हद तक पारस्परिक बोधगम्यता है, सामंजस्यपूर्ण सांस्कृतिक इतिहास है, समान लिपि है (तुलु की अपनी भिन्न लिपि थी, अब प्रयोग कम होती है), और समान सामाजिक-राजनीतिक-धार्मिक परिवेश हैं। परन्तु मानक कन्नड (जो दक्षिण कन्नड़ बोलियों पर आधारित है) का अन्य दो भाषाओं पर प्रभुत्व है। शिक्षा या जीविकोपार्जन के अवसर तुलु और कोडावा टक्क में सामान्यतः उपलब्ध नहीं हैं।

तेलंगाना तेलुगु  और तटीय तेलुगु : दोनों को एक भाषा के दो रूप माना जाता है। समान लिपि है। सामंजस्यपूर्ण सांस्कृतिक इतिहास है। यद्यपि तेलंगाना तेलुगु को दोयम दर्जे का माना जाता था, क्योंकि मानक तेलुगु तटीय तेलुगु बोलियों पर आधारित है। तेलंगाना तेलुगु  बोलने वालों को मानक तेलुगु में बनी फ़िल्मों में उपहास के रूप में हास्पपूर्ण भाषा बोलते दिखाया जाता था, उन्हें अज्ञानी और मूर्ख घोषित किया जाता था। यह भाषाई व्यवहार भाषा और बोलियों के संबंधों में बहुत प्रचलित है। इन्हीं भाषागत और सांस्कृतिक-सामाजिक  भेदों के फलस्वरूप तेलंगाना और आंध्रप्रदेश राज्यों का 2014 में विभाजन हुआ।  संभव है कि भविष्य में तेलंगाना तेलुगु कोंकणी के समान एक स्वतंत्र भाषा के रूप में प्रकट हो।

इन उदाहरणों से स्पष्ट है कि पारस्परिक बोधगम्यता का सिद्धांत भी भाषाओं और बोलियों में अंतर  स्पष्ट कर पाने में असफल है। हर भाषा अपने आप में वस्तुतः एक बोली है, इस बोली की अन्य बोलियों के बीच सत्ता है, एवं सामाजिक, राजनीतिक, शैक्षिक और आर्थिक क्षेत्रों में उस बोली का भाषाई प्रभुत्व है। कहा जा सकता है कि प्रत्येक भाषा वह बोली है जिसके हाथ में बंदूक है।

किसी भी भाषा के सभी रूपों को बोलियाँ माना जा सकता है, जिसमें मानक रूप  भी शामिल है। अकादमिक विमर्श में भिन्न भाषाओं (वे बोलियाँ जिन्हें भाषा का दर्ज़ा मिला हुआ है) को वास्तविक इकाइयाँ न मानकर वैचारिक इकाइयाँ मानकर  चर्चा करने की प्रवृत्ति बढ़ रही है। भाषावैज्ञानिक बोली शब्द के स्थान पर भाषा-प्रकार कहना अधिक उपयुक्त समझते हैं।