सुरेन्द्र मोहन पाठक जी के उपन्यास ‘गोवा गलाटा’ (2015) से उद्धृत:

“ख़तरा कहाँ नहीं है?

हर जगह है। हर तरफ़ है। पैदायश से लेकर आखिरी सफ़र तक ख़तरे ही ख़तरे पेश आते हैं; बल्कि पैदायश से पहले ही पेश आने शुरू हो जाते हैं जबकि लेडी डाक्टर जच्चा को बोलती है, नार्मल डिलीवरी में खतरा है, सीजेरियन डिलीवरी होगी।”

फिर दर्जनों शॉट्स का, रिपीट शॉट्स का दौर शुरू होता है ताकि पोलियो का ख़तरा टल सके, चेचक का ख़तरा टल सके, काली खाँसी का ख़तरा टल सके, पीलिया का ख़तरा टल सके, वगैरह वो खतरे टल के चुके नहीं होते कि मम्मी वार्निंग्स जारी करने लगती है:

  • “पाला पड़ रहा है, टोपी, मफलर पहन ले कम्बख़्त, वर्ना निमोनिया हो जायेगा।”
  • “बाहर बारिश हो रही है, नासमारे, छतरी ले के जा वर्ना खाँसी ज़ुकाम से मरेगा।”
  • “सड़क के दोनों तरफ देख के सड़क पार किया कर, मुँहझौंसे, वर्ना किसी दिन बस के नीचे आयेगा।”
  • “अजनबियों से बात नहीं करनी, ईडियट, वो चोर हो सकते हैं जो भांप रहे हों कि घर में कब कोई नहीं होगा।”

ताज़िन्दगी आदमी का बच्चा ख़तरों से ख़बरदार रहने वाली हिदायात पर अमल करता है ताकि इस फ़ानी दुनिया में उसका वजूद बना रह सके जबकि केले के छिलके से फिसल कर गर्दन तुड़ा सकता है और जहन्नुम रसीद हो सकता है।

अपने फ़ेवरेट तन्दूरी चिकन की नन्हीं सी हड्डी विंडपाइप में फँस जाने से मर सकता है। टुन्न होकर कार चलाते रईसज़ादे की कार की चपेट में आकर दूसरे जहान की राह का राही बन सकता है। भूचाल ख़ास उसका पता पूछने आ सकता है। पाकिस्तानी हमले का पहला बम ऐन उसकी छत पर आ कर फूट सकता है।

कहने का तात्पर्य ये है कि जो शख़्स ख़तरों से ख़ौफ़ खाता है, उसके लिये ज़िन्दगी के हर कदम पर जाना अनजाना, पहचाना अनचीन्हा ख़तरा खड़ा है।

संदर्भ

सुरेन्द्र मोहन & पाठक सुरेन्द्र. (2015). गोवा गलाटा. हार्पर हिन्दी.