सियाह हाशिये, ठंडा गोश्त, टोबाटेक सिंह, खोल दो, बू जैसे अफ़साने (कहानियाँ) लिखने वाले अफ़साना निगार (कहानीकार) सआदत हसन मंटो (Saadat Hasan Manto 1912-1955) की तहरीरें आज भी ज़ौक़-ओ-शौक़ से पढ़ी जाती हैं। विभाजन की त्रासदी, इंसानी ज़िंदगी की जद्द-ओ-जहद से सराबोर मंटो की कहानियाँ महज़ वाक़ियाती नहीं थी बल्कि उनमेँ तीसरी दुनिया के पसमांदा मुआशरे के तज़ादात की दास्तान मौजूद थी।
इसी सिलसिले मेँ मंटो के कुछ मुख़्तसर अफ़साने ( लघु कथाएँ ) नीचे पढ़िए –
संचयन – अभिषेक अवतंस
जेली
“सुबह छः बजे पेट्रोल पम्प के पास हाथ गाड़ी में बर्फ़ बेचने वाले के छुरा घोंपा गया। सात बजे तक उस की लाश लुक (तारकोल) बिछी सड़क पर पड़ी रही और उस पर बर्फ़ पानी बन-बन गिरती रही।
सवा सात बजे पुलिस लाश उठा कर ले गई। बर्फ़ और खू़न वहीं सड़क पर पड़े रहे।
एक तांगा पास से गुजरा। बच्चे ने सड़क पर जीते जीते खू़न के जमे हुए चमकीले लोथड़े की तरफ देखा। उसके मुंह में पानी भर आया। अपनी माँ का बाजू़ खींच कर बच्चे ने उंगली से उसकी तरफ इशारा किया- “देखो मम्मी जेली”।
करामात
लूटा हुआ माल बरामद करने के लिए पुलिस ने छापे मारने शुरु किए।
लोग डर के मारे लूटा हुआ माल रात के अंधेरे में बाहर फेंकने लगे,
कुछ ऐसे भी थे जिन्होंने अपना माल भी मौक़ा पाकर अपने से अलहदा (अलग) कर दिया, ताकि क़ानूनी गिरफ़्त से बचे रहें।
एक आदमी को बहुत दिक़्कत पेश आई। उसके पास शक्कर की दो बोरियाँ थी जो उसने पंसारी की दूकान से लूटी थीं। एक तो वह जूँ-तूँ रात के अंधेरे में पास वाले कुएँ में फेंक आया, लेकिन जब दूसरी उसमें डालने लगा ख़ुद भी साथ चला गया।
शोर सुनकर लोग इकट्ठे हो गये। कुएँ में रस्सियाँ डाली गईं।
जवान नीचे उतरे और उस आदमी को बाहर निकाल लिया गया।
लेकिन वह चंद घंटो के बाद मर गया।
दूसरे दिन जब लोगों ने इस्तेमाल के लिए उस कुएँ में से पानी निकाला तो वह मीठा था।
उसी रात उस आदमी की क़ब्र पर दीए जल रहे थे।
कम्यूनिज़्म (साम्यवाद)
वह अपने घर का तमाम ज़रूरी सामान एक ट्रक में लदवाकर दूसरे शहर जा रहा था कि रास्ते में लोगों ने उसे रोक लिया।
एक ने ट्रक के सामान पर नज़र डालते हुए कहा, “देखो यार! किस मज़े से इतना माल अकेला उड़ाए चला जा रहा है।”
सामान के मालिक ने कहा, “जनाब! माल मेरा है।”
दो तीन आदमी हँसे, “हम सब जानते हैं।”
एक आदमी चिल्लाया, “लूट लो! यह अमीर आदमी है, ट्रक लेकर चोरियाँ करता है।”
सफ़ाई पसंद
गाड़ी रुकी हुई थी।
तीन बंदूकची एक डिब्बे के पास आए। खिड़कियों में से अंदर झाँककर उन्होंने मुसाफिरों से पूछा-“क्यों जनाब, कोई मुर्गा है?”
एक मुसाफ़िर कुछ कहते-कहते रुक गया। बाकियों ने जवाब दिया-“जी नहीं।”
थोड़ी देर बाद भाले लिए हुए चार लोग आए। खिड़कियों में से अंदर झाँककर उन्होंने मुसाफिरों से पूछा-“क्यों जनाब, कोई मुर्गा-वुर्गा है?”
उस मुसाफिर ने, जो पहले कुछ कहते-कहते रुक गया था, जवाब दिया-“जी मालूम नहीं…आप अंदर आके संडास में देख लीजिए।”
भालेवाले अंदर दाखिल हुए। संडास तोड़ा गया तो उसमें से एक मुर्गा निकल आया। एक भालेवाले ने कहा-“कर दो हलाल।”
दूसरे ने कहा-“नहीं, यहाँ नहीं…डिब्बा खराब हो जाएगा…बाहर ले चलो।
कस्र-ए-नफ़्सी (विनम्रता)
चलती गाड़ी रोक ली गई।
जो दूसरे मज़हब के थे,
उनको निकाल-निकालकर तलवारों और गोलियों से हलाक कर दिया गया।
इससे फारिग होकर
गाड़ी के बाकी मुसाफ़िरों की
हलवे, दूध और फलों से सेवा की गई।
गाड़ी चलने से पहले
सेवा करने वालों के मुंतजिम (मुखिया) ने
मुसाफिरों को मुख़ातिब करके कहा :
“भाइयों और बहनों,
हमें गाड़ी की आमद की इत्तिला बहुत देर में मिली;
यही वज़ह है कि हम जिस तरह चाहते थे,
उस तरह आपकी ख़िदमत न कर सके…!”
फोटो साभार – http://now.tufts.edu/articles/when-india-and-pakistan-split-apart