अभिषेक अवतंस

आपने बचपन में ‘हाथी घोड़ा पालकी जय कन्हैया लाल की’ का उद्घोष ज़रूर सुना होगा। पालकी लकड़ी की बनी एक प्रकार की सवारी गाड़ी है जिसे आदमी कंधे पर लेकर चलते थे। यह बात विचार योग्य है कि हिन्दी का पालकी शब्द संस्कृत के पर्यङ्क अर्थात बिस्तर से आया है। पालकी को संस्कृत में शिविका, वाह्य आदि अन्य नामों से भी जाना जाता था। भारत में यातायात के साधन के रूप में पालकी का इतिहास बहुत प्राचीन है। भारतीय उपमहाद्वीप में सामान्यत: छह प्रकार की पालकियाँ इस्तेमाल में आती थीं। एक पालकी जिसे डोली कहा जाता था महिलाओं और नवविवाहित वधुओं के द्वारा इस्तेमाल की जाती थी। दिलचस्प बात यह कि 1979 में रीलिज़ हुई जानी दुश्मन नामक हॉरर फ़िल्म के गीत ‘’चलो रे डोली उठाओ कहार’’ ने कहार और डोली जैसे शब्दों को बॉलिवुड में भरपूर लोकप्रियता दिलाई थी। डोली का एक अन्य रूप मुहाफ़ह प्रचलित था जिसमें परदे लगे होते थे। डोली के समांतर में नालकी होती थी जिसपर शादी के लिए दूल्हा बैठकर जाता था। मध्यकालीन युग में पालकी का एक रूप मियाना था, जो एक मध्यम आकार की पालकी थी जिसमें ऊपर छत होती थी। पालकी का एक और अनोखा रूप था ‘तामजान’ जो एक खुली पालकी थी। इस पालकी की लकड़ी पर उन्नत किस्म की नक्काशी की जाती थी, और उसे विभिन्न तरीकों से सजाया जाता था। शायद यही कारण है कि आज भी अनावश्यक और दिखावटी प्रदर्शन को तामझाम कहा जाता है। क्योंकि आमतौर पर पालकी की उपयोगिता लंबी दूरी के आवागमन के लिए थी, इसका व्यय अधिक था। इसे ज़्यादातर धनाढ्य और शासक वर्ग के व्यक्ति ही इस्तेमाल में लाते थे। कभी-कभी बीमार व्यक्तियों के आने-जाने के लिए भी इसका इस्तेमाल होता था।

बहरहाल भारत में अंग्रेज़ों के आगमन के बाद यूरोपीय शैली की पालकी का प्रचलन बढ़ा। यह पालकी लम्बी दूरी की यात्रा के लिए आरामदायक थी और दोनों ओर से बंद बक्से की तरह दिखती थी। आमतौर पर इस पालकी को उठाने के लिए आठ पालकी वाहकों की ज़रूरत होती थी। अंधेरे में यात्रा में सहायता के लिए एक मशालची पालकी के साथ चलता था। पालकी के पीछे एक भारवाहक (पोर्टर) यात्री का अन्य साजो-सामान लिए चलता था। 

ग़ौरतलब है कि मानव-श्रम से चलने वाली इस सवारी गाड़ी को चलाने वाले लोगों का इतिहास भी कम रोचक नहीं। भारत में पालकी उठाने वाली मेहनतकश जातियों का इतिहास बहुत पुराना है। उत्तर और पूर्व भारत में पालकी ढोने का कार्य करने वाले समुदायों में कहार, गोंड, भोई आदि प्रमुख हैं। उत्तर प्रदेश (तत्कालीन संयुक्त प्रांत) और बिहार के इलाकों में इस अधव्यवसाय में कहार और गोंड समुदाय के व्यक्ति शामिल थे। उधर ओडिया बोलने वाले भोई समुदाय के लोग मूल रूप से ओडिशा के निवासी थे जो मुख्यत: कोलकाता और बंगाल की अन्य रियासतों में इस व्यवसाय से जुड़े थे। 18वीं-19वीं सदी में कलकत्ता में भोई समुदाय का पालकी ढोने के व्यवसाय पर एकाधिकार था। भोई पालकी वाहकों से जुड़ी एक अनोखी बात यह थी कि वे अपने शरीर पर सिर्फ़ एक सफ़ेद धोती पहनते थे, और उनके मुंडन किए सिर पर एक चोटी होती थी। 19वीं सदी के पूर्वार्ध में कलकत्ता में पूर्वांचल के कहार, गोंड और बिहार से मुसहर जाति के पालकी वाहको का आना शुरू हुआ जिन्होंने इन भोई पालकी वाहकों के लिए मुश्किलें खड़ी कर दीं। मामला यहाँ तक पहुँच गया कि 1823 में कलकत्ता के भोई समुदाय के पालकी वाहकों ने भाड़ा नियंत्रण के मुद्दे पर हड़ताल कर दी। इस हड़ताल को भारत की पहली संगठित हड़ताल माना जाता है। लेकिन अतंत: कम किराए पर अधिक काम करने की मुहिम से नये पालकी वाहकों ने बाज़ार में अपने जगह बना ली। अन्य स्थानों पर मुसहर जाति के पालकी वाहको ने कहारों / गोंडों को अपनी मज़बूत क़दकाठी और अधिक सुविधा देने की जुगत से चुनौती दी।

भारत पर ईस्ट इंडिया कंपनी के शासनकाल में यातायात के साधन के रूप में पालकी का इस्तेमाल काफ़ी बढ़ गया। इसके कई प्रशासनिक, राजनीतिक और आर्थिक कारण थे। पालकी वाहकों को यात्री द्वारा निश्चित भाड़े पर यात्रा की आवश्यकता अनुसार नियुक्त किया जाता था। क्योंकि पालकी वाहकों के एक ही दल के साथ लंबी दूरी की यात्राओं में अधिक समय और धन व्यय होता था, 1778 में ईस्ट इंडिया कंपनी के कैप्टन जॉन हार्वी ने देश की पहली पालकी रिले सेवा कलकत्ता और बनारस के बीच शुरू की। इस सेवा में हर 10 मील की दूरी पर आठ पालकी वाहकों, दो मशालचियों और एक भारवाहक का दल तैनात रहता था, जिनका एक सरदार भी साथ चलता था।  सन्‌ 1783 में सरकार ने इस रिले सेवा का ठेका डाक विभाग को दे दिया गया। इस ठेके के अंतर्गत इस रिले सेवा में पालकी वाहकों को एक दिन में लगभग 155 किलोमीटर की दूरी तय करनी पड़ती थी। 

क्योंकि इतनी तेज़ गति से लंबी दूरी पर पालकी ले जाने के लिए एक उन्नत दिशा-ज्ञान और प्रभावी समन्वय की आवश्यकता पड़ती थी, पूर्वांचल के पालकी-वाहकों ने अपनी एक गुप्त भाषा विकसित की थी। इस भाषा की सहायता से वे न सिर्फ़ रास्ते के गतिशील भूगोल को एक-दूसरे को प्रभावी रूप से समझा पाते थे, बल्कि कहाँ रुकना है, कब प्रस्थान करना है,  कहाँ तेज़ दौड़ना है, कब धीमे चलना है या कब कंधे बदलना है आदि का संप्रेषण अच्छी तरह कर पाते थे। इस भाषा का इस्तेमाल इसलिए भी ज़रूरी था क्योंकि पालकी के पिछले भाग में चल रहे पालकी-वाहकों को आगे का रास्ता स्पष्ट दिखाई नहीं देता था, और पालकी का रास्ता बेहद दुर्गम एवं घुमावदार होता था। पूर्वांचल के पालकी वाहक कहार / गोंड मुख्यत: भोजपुरी और अवधी भाषाओं के बोलने वाले थे। इसलिए उनकी गुप्त भाषा भी इन्हीं लोकभाषाओं के आधार पर निर्मित थी। सबसे आगे के पालकी वाहको को आदर से अगहर बुलाया जाता था। प्रस्थान करते समय ‘’दोहाई देवतन कै, उठाई’’ कहते हुए पालकी को उठाया जाता था। लंबी दूरी तक चलन के बाद, थक जाने पर अन्य वाहकों को ‘बोले दे’ कहकर संकेत दिया जाता था। 

इस गुप्त भाषा के कुछ अन्य उदाहरण देखें –

राज दरिद्दर रसे रसे = रास्ता ख़राब है, धीरे चलो

संतो छुटल माया = रास्ते में कटी हुई फ़सल की नूकीली ठूँठियाँ हैं। 

बोलता हौ = रास्ते में कुछ लोग हैं।

भर कदम = सामने अवरोध है, पूरा और लंबा कदम उठाओ।

सवा कदम = एक चौथाई कदम उठाओ (ख़ासकर जब खेत की मेड़ आगे हो)

चलता हौ = ज़मीन फ़िसलने वाली है।

छहाटा हौ = ज़मीन फ़िसलन भरी है, कीचड़ है।

गऊदान = रास्ते में गाय-बैल हैं।

बैल के कमाई हौ = सामने जुता हुआ एक खेत है।

आगि बाय, जरी बचा = सामने आग या मल है, पैर ध्यान से रखो

गुल-गुल तकिया नरम-नरम = सामने ज़मीन मुलायम, सावाधानी से पैर रखो

दुपहर पै धरकी = आगे उतराई है

खोड़ही हौ = सामने नुकीली टूटी हुई चीज़ें हैं

कनरी हौ = रास्ते में काँटे हैं

झकनी हौ = आगे एक कुआँ है

कलम तरास हौ = सामने अरहर की कटी हुई फ़सल है।

लहासी तोड़  = आगे पेड़ों की झुकी डालियों का संकेत, जिनसे बचना है।

चमेखी हौ = आगे गेहूँ या जौ के चुभने वाले पौधे हैं।

मिठावल हौ = आगे गन्ने का खेत है।

टाँस लगल, तानी दे = कोई पालकी वाहक कंधा बदलना चाहता हो, तो यह कहता था।

पार हो = सभी को एक साथ कंधे बदलने का संकेत इसे बोलकर दिया जाता था।

हम जानते हैं कि पालकी उठाने का काम बहुत श्रमसाध्य और थकाऊ होता था। यात्रा के दौरान पालकी वाहक ख़ुद को इस काम में उर्जावान रखने और मन बहलाने के लिए भी अपनी इस गुप्त भाषा का इस्तेमाल करते थे। जैसे रास्ते में किसी अवरोध को पार करने के बाद एक-दूसरे को ‘जीओ गोइयाँ, जीओ’ के अभिवादन से बधाई देते थे। हँसी-ठिठोली के लिए यह बातचीत आमतौर पर सवारी के विषय में होती थी, जिसमें सवारी के रूप-सौन्दर्य की चर्चा भी शामिल थी। अगर दुल्हन रूपवती युवती हो, तो कहते – नेबुआ गदल हौ। और अगर दुल्हन शर्मीली हो तो कहते – घूँघट काढ़ जीव मार।  कभी-कभी दुल्हन के परिवार के ऊपर भी व्यंग्य किया जाता था, जैसे अगर दुल्हन के परिवार के लोग कंजूस हों तो कहते – सतुआ में नून नाहीं (सत्तू में नमक नहीं है)। अंधेरे में काली के किसी मंदिर के पास से गुज़रते हुए कहते – जगत अन्हार काली माई (अर्थात अंधेरे में आप रक्षा करें) आदि।

आज गूगल मैप्स और जीपीएस नैविगेशन का दौर है। छोटी से छोटी यात्रा के दौरान हम अपने स्मार्टफ़ोन की मदद लेने से नहीं चूकते। हालाँकि कहारों की यह गुप्त भाषा अब विलुप्त हो चुकी है, लेकिन यह शोध का विषय है कि कैसे निरक्षर पालकी उठाने वाले श्रमजीवी लोगों ने एक ऐसी गुप्त भाषा विकसित की जिसके सहारे उन्होंने अनगिनत सवारियों को अपने कंधो पर सुरक्षित उनके गंतव्य तक पहुँचाया। भोजपुरी और अवधी जैसी समृद्ध और व्यापक लोकभाषाओं की अद्भुत सृजन क्षमता से हमें बहुत कुछ सीखना शेष है।  

(लेखक भाषाविज्ञान और भारत की भाषाओं में विशेष रुचि रखते हैं और नीदरलैंड के लायडन विश्वविद्यालय में अध्यापक हैं। उनसे Twitter पर @avtansa के ज़रिए जुड़ा जा सकता है।)