Mysore palace on the night of Dussehra
Source: https://pixahive.com/photo/mysore-palace-lighting-on-dussehra/

राष्ट्रीय पर्व – विजयादशमी
लेखक: डॉ. शिवनंदन कपूर
(नई दिल्ली पालिका समाचार, दिल्ली, के अक्टूबर 1974 अंक में प्रकाशित)
[लेखकीय पता: 387, टपाल चाल (मध्य प्रदेश)]
संपादन एवं संवर्धन: अभिषेक अवतंस

विजयादशमी का त्यौहार समूचे राष्ट्र में मनाया जाता है। नवरात्र या नौ रातों से लेकर दसवें दिन तक चलने के कारण  इसे विजयादशमी कहते हैं । नारद के कहने पर भगवान श्री राम ने नौ दिन तक शक्ति की उपासना की। तब वे दसवें दिन रावण पर विजय पा सके। इसीलिए भारतीय परिवार नौ दिनों तक व्रत रखकर, दसवें दिन “शस्त्र पूजा” करते हैं। आज सभी वर्गों के लोग इस दिन अपने औजारों की भी पूजा करते हैं। इस तरह वे कर्म को सम्मान देते हैं। कोई काम नीचा नहीं। सभी समान हैं । एकता, शक्ति-संचय और काम को महत्व देने वाला यह पर्व भारत के कोने-कोने में अपने-अपने ढंग से मनाया जाता है ।

मध्यप्रदेश: सोना-चाँदी

मध्यप्रदेश में ‘नवरात्र’ तक देवी दुर्गा के मन्दिर में भक्तों की भीड़ लगी रहती है। दसवें दिन प्रभात में ‘शस्त्र-पूजा ‘ होती है। नवदुर्गा का एक रूप ‘कुष्माण्डा’ भी है। इसलिए बलि के प्रतीक रूप में यहाँ घरों के द्वार पर कुष्माण्ड या कुम्हड़ा अथवा नींबू काटा जाता है। सिर के प्रतीक रूप में कुम्हड़े का डण्ठल रहने देते हैं। संध्या के समय नगर के विभिन्न स्थानों पर रावण-वध मनाया जाता है। रावण के शरीर में आग लगते ही पटाखों की गूँज उल्लास भरती है। उसके बाद लोग अपने परिचितों के यहाँ मिलने जाते हैं। उनके हाथों में होता है “सोना-चाँदी”। सोना चाँदी वास्तविक न होकर उसके प्रतीक होते हैं। सोना के रूप में शमीवृक्ष (खेजड़ी) की पत्तियाँ होती हैं। वे हृदय के आकार की गोल पत्तियाँ बीच में जुड़ी रहती हैं। उन्हें देकर कल्पना की जाती है कि इनके ही समान हमारे मन भी जुड़े रहेंगे। उनके साथ ही ज्वार के पत्ते भी दिये जाते हैं। अन्न-धन के प्रतीक उन पत्तों को देकर एक प्रकार से हम अपने परिचितों और संबंधियों की वैभव वृद्धि की कामना करते हैं। ‘सोना-चाँदी’ देने वाला बड़ों के पैर छूता है। समान अवस्था वाले उसे देकर गले मिलते हैं। फिर उनका पान-मिष्ठान से स्वागत होता है। कहीं-कहीं नारियल तथा रुपये देकर छोटों को आशीर्वाद देते हैं।

उत्तरप्रदेश: मछली और मुद्रा

उत्तर प्रदेश में , दशहरे पर सुबह आँखें खोलते ही मछली-दही , और रजतमुद्रा या चाँदी के रुपये के दर्शन कराये जाते हैं। इन्हें देखना शुभ माना जाता है। इस दिन मध्यप्रदेश तथा उत्तरप्रदेश में लोग नीलकण्ठ (एक नीले रंग का पक्षी) के दर्शन करना शुभ मानते हैं। इसलिये उसे देखने दूर-दूर तक निकल जाते हैं। कहीं-कहीं तो बहेलिये नीलकण्ठ लाकर दर्शन कराते और पुरस्कार पाते हैं। इसके बाद कुम्हड़े या तरोई के फूलों से शस्त्रपूजा की जाती है। बाजे वाले घर-घर जाकर विजयपर्व के उल्लास में बाजे बजाते तथा धन पाते हैं। राम की विजय की प्रसन्नता जो रहती है। रामलीलायें होती हैं। विमान निकलते हैं। बनारस में रामनगर की रामलीला प्रसिद्ध है। वहाँ राम तथा सीता के विवाह में एक युवक तथा युवती का वास्तविक विवाह कराया जाता था। उन लोगों को बनारस राज (वाराणसी के राजा) की ओर से भूमि तथा धन दिया जाता था। बनारस की रामलीला, भरत-मिलाप आदि इतने प्रसिद्ध हैं कि वहाँ रामायण के शूर्पणखा प्रसंग पर एक स्थान का नाम ही “नककटैया” पड़ गया है। प्रयाग (इलाहाबाद) में सुन्दर विमान निकलते हैं। संध्या को सभी जगह रावणवध एक मेले का रूप ले लेता है। कानों में ज्वार की बालियां लगाई जाती हैं।

पंजाब: कुमारियों की पूजा

पंजाब में नवरात्र पर महिलायें व्रत रखती हैं। फिर कुमारी कन्याओं को निमंत्रित करती हैं। उन्हें देवी का रूप मान कर, उनके पैर धोकर, पूजा करती हैं। उन्हें भोजन कराकर , पैसे दिये जाते हैं। यहाँ भी ज्वार की बालियाँ सम्मानपूर्वक नदी तट तक ले जाई जाती हैं। फिर उनका प्रवाह कर दिया जाता है। संध्या के समय रावणवध का मेला जुटता है।

सिन्ध: हजामत की मनाही
सिन्ध में भी दशहरे का पर्व उसी प्रकार उल्लास से मनाया जाता है। मध्य प्रदेश के समान, वहाँ भी उस दिन शमी वृक्ष और मक्के की पत्तियाँ एक-दूसरे को समर्पित करने का चलन है। पितृ विसर्जन से दशहरे तक मांस खाने वाले लोग भी उसे छोड़कर सादा भोजन करते हैं। दशहरे के दस दिनों तक वहाँ हजामत नहीं बनवाई जाती। लोग देवी के मन्दिर में जाकर साधुओं को पैसे देते हैं। फिर उससे तेल लेकर ही बाल कटाने के अधिकारी होते हैं।

बंगाल में दुर्गा तथा सरस्वती पूजा
बंगाल में सबसे अधिक महत्व का पर्व दुर्गा पूजा ही रहा है। इस पर्व पर भारत के दूसरे भागों में बसे बंगाली भी कलकत्ता जाते हैं। बहुत दिनों पहले से दुर्गा की मूर्तियां बनने लगती हैं। कई-कई हज़ार की मूर्तियाँ बनाई जाती हैं। वे बड़ी सुन्दर और कला-पूर्ण होती हैं। आठ दिनों तक दुर्गा अष्टमी मना कर, नवें दिन महिषासुर मर्दिनी की प्रतिमा नदी में विसर्जित कर दी जाती है। जहाँ मूर्ति की स्थापना होती है, वहाँ दोनों समय पूजा आरती के अतिरिक्त नाटक, संगीत आदि के कार्यक्रम भी चलते हैं। दशहरे पर उजले वस्त्र पहने लोग परिचितों के यहां “कोला-कोली” (गले मिलने) के लिये जरूर जाते हैं। सभी पत्रिकायें दशहरे पर पूजा विशेषांक निकालती हैं । बांग्लाभाषी उन्हें चाव से खरीदते हैं । बंगाल ही नहीं, दूसरे प्रान्तों में बसे बंगाली भी इस त्यौहार को उत्साह से मनाते हैं। हर जगह “काली बाड़ी” में नाटकों, तथा अन्य कार्यक्रमों की धूम रहा करती है । बंगाल शक्ति-पूजकों का प्रान्त है । इसीलिये वे दुर्गा पूजा के रूप में इसे ख़ूब घूमधाम से मनाते हैं।
असम प्रांत में भी बंगाल के समान ही प्रसन्नता से यह पर्व मनाया जाता है। पहाड़ी स्थानों पर रहने वाली जनजातियाँ भी इसे उत्साह से मनाती हैं। वहाँ भी षष्ठी से दशमी तक दुर्गा-पूजा मनाई जाती है । पशु बलि के साथ सांस्कृतिक कार्यक्रम होते हैं। दशहरे का मेला देखने ग्रामीणों की भीड़ उमड़ पड़ती है।

दक्षिण भारत में देवी पूजा
दक्षिण भारत में इस उत्सव का प्रारंभ “कोलू” की स्थापना से होता है। घर में एक ऊँचे स्थान पर गुड्डे- गुड़ियों को सजाते हैं। उन्हें ही “कोलू” का नाम दिया जाता है। तमिलनाडु में “कोलू” की प्रतिष्ठा के साथ देवी के सभी रूपों, दुर्गा, लक्ष्मी, सरस्वती की पूजा होती है। यह पूजा नवें दिन की जाती है। एक चौकी पर घर की समस्त पुस्तकें, कलम दवात, तथा सरस्वती का चित्र रख कर पूजन किया जाता है। मूर्ति हो तो उसे ही, पूजा के लिये रखते हैं।
आन्ध्र में इस पर्व पर शमी वृक्ष (खेजड़ी) की पूजा भी की जाती है। “महाभारत” की कथा के अनुसार, अज्ञातवास के समय पाण्डवों ने अपने सब हथियार शमी वृक्ष (खेजड़ी) में ही छिपा कर रखे थे। अतः इस त्योहार का संबंध शस्त्र और शमी वृक्ष से जोड़ कर दोनों की पूजा की जाती है। कर्णाटक के मैसूर का दशहरा विश्वविख्यात है।

इस प्रकार विजयादशमी उत्तर से दक्षिण तक उत्साह से मनाई जाती है। भारत के भिन्न-भिन्न भागों में इसका रोचक रूप कुछ बदल जाता है। एक भारतीय के नाते हमें उसकी जानकारी होना भी आवश्यक है।


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