बोधकथा
दो आदमी यात्रा पर निकले। दोनों की मुलाकात हुई। दोनों यात्रा में एक साथ जाने लगे। दस दिनों के बाद दोनों के अलग होने का समय आया तो एक ने कहा, ‘भाईसाहब ! दस दिनों तक हम दोनों साथ रहे। क्या आपने मुझे पहचाना?’ दूसरे ने कहा, ‘नहीं, मैंने तो नहीं पहचाना।’ वह बोला, ‘माफ़ करें मैं एक नामी ठग हूँ। लेकिन आप तो महाठग हैं। आप मेरे भी उस्ताद निकले।’
‘कैसे?’ ‘कुछ पाने की आशा में, मैंने निरंतर दस दिनों तक आपकी तलाशी ली, मुझे कुछ भी नहीं मिला। इतनी बड़ी यात्रा पर निकले हैं तो क्या आपके पास कुछ भी नहीं है? आप बिल्कुल ख़ाली हाथ हैं?’
‘नहीं, मेरे पास एक बहुत क़ीमती हीरा है और एक सोने का कंगन है ।’
‘तो फिर इतनी कोशिश के बावजूद वह मुझे मिले क्यों नहीं?’
‘बहुत सीधा और सरल उपाय मैंने काम में लिया। मैं जब भी बाहर जाता, वह हीरा और सोने का कंगन तुम्हारी पोटली में रख देता था। तुम दस दिनों तक मेरी झोली टटोलते रहे। अपनी पोटली संभालने की जरूरत ही नहीं समझी। तुम्हें मिलता कहाँ से?’
कहने का मतलब यह कि हम अपनी गठरी संभालने की ज़रूरत नहीं समझते। हमारी निगाह तो दूसरों की झोली पर रहती है। यही हमारी सबसे बड़ी समस्या है। अपनी गठरी टटोलें, अपने आप पर दृष्टिपात करें तो अपनी कमी समझ में आ जाएगी।