
दाँतों की सफ़ाई का ध्यान रखना कितना ज़रुरी है, यह हम सब जानते हैं। पर आपको यह जानकर आश्चर्य होगा मेरे जैसे कई आम भारतीय अपने जीवन में कभी किसी दाँत के डाक्टर के पास नहीं गए होंगे। देश से बाहर जाने के बाद पता चला कि यहाँ साल में दो बार दाँत के डाक्टर के पास जाना अनिवार्य है। इसके लिए आपको अलग से बीमा भी करवाना पड़ता है। बच्चे-वयस्क, बूढ़े-जवान सभी को अपने दाँतो की देखभाल के लिए दाँतों के डाक्टर के जाना पड़ता है। भारत में लोग सिर्फ़ दाँतों की बीमारी या दर्द होने पर दाँतों के डाक्टर के पास जाते हैं।

बहुत साल पहले से भारत के लोग दाँत माँजने के लिए दातुन का इस्तेमाल करते आ रहे हैं। इसके लिए ख़ास तौर से नीम या बबूल या मिसवाक की ताज़ी टहनी इस्तेमाल की जाती है। लेकिन अब शहरों में इसका इस्तेमाल कम होता जा रहा है। लोग टूथब्रश और टूथपेस्ट का इस्तेमाल ज़्यादा करते हैं।

इसी प्रसंग में मैं आपको दातुन साहिब के बारे में बताना चाहता हूँ। दातुन साहिब लद्दाख (जम्मू-कश्मीर, भारत) के मुख्यालय लेह में स्थित एक मिसवाक के पेड़ का नाम है। इस पेड़ को नारंगी रंग के कपड़े में लपेटा गया है। यह जगह लेह के मुख्य बाज़ार के बिल्कुल करीब है। पास में रोटियाँ बनानेवालों की दुकानें है। कथा यह है कि 1517 ईसवी में जब सिख धर्मगुरू गुरूनानक देव जी अपनी दूसरी प्रचार यात्रा ( द्वितीय उदासी) के दौरान लेह पहुँचे थे। यहाँ उन्होंने अपनी दातुन से मिसवाक का पेड़ लगाकर लेह के पहाड़ी रेगिस्तान में हरियाली और सदभाव का संदेश दिया था।
एक बात और कि आमतौर पर भारतीय लोग सुबह-सुबह ही दाँत माँजते हैं, लेकिन पाश्चात्य संस्कृति में सोने से पहले भी दाँतों को माँजना बेहद ज़रूरी है। उसी तरह मैंने अपनी ज़िन्दगी में (अन्य भारतीयों की तरह) कभी फ़्लॉस (दाँत साफ करने का धागा) का इस्तेमाल नहीं किया था। लेकिन अब करने लगा हूँ। अगर आपके दाँत तंदुरुस्त रहेंगे, तो आपकी सेहत अच्छी होगी और आप ज़िंदगी का पूरा-पूरा लुत्फ उठा पाएँगे। अगर यही बात है, तो फिर, क्यों न दाँतों के डॉक्टर के पास जाएँ?
अंत में 1980 के दशक का दूरदर्शन का विज्ञापन। यह विज्ञापन ’डाबर लाल दंत मंजन’ का है। यह आयुर्वेदिक दंतमंजन पहले भारत में काफ़ी लोकप्रिय था। मुझे याद है कि मेरी माँ और दादी भी इसका रोज़ाना इस्तेमाल करती थीं