“सीने में जलन, आँखों में तूफ़ान सा क्यूँ है ” गाने को सुनने के बाद फ़ारुक़ शेख़ की याद आ गई । फ़ारुक़ का जन्म सन १९१४८ में गुजरात के अमरोली में हुआ था। गरम हवा (१९७३) से अपने फ़िल्मी कैरियर की शुरूवात-कर फ़ारुक़ ने कथा, शतरंज के खिलाड़ी, बाज़ार, चश्मे बद्दूर, ’उमराव जान’ जैसी नायाब फ़िल्मों में अभिनय किया। दूरदर्शन (भारत का पहला टी.वी. चैनल) के ज़माने के इस बेहतरीन एक्टर ने अपनी फ़िल्मों में आम हिन्दुस्तानी आदमी का किरदार बख़ूबी निभाया। १९७० के दशक में जबकि अधिकांश फ़िल्में फ़ालतू की मारधाड़ से भरी थी और अमिताभ बच्चन की ’एन्ग्री यंग मैन’ फ़िल्मों का बोलबाला था, उस समय फ़ारुक़ ने अपनी शांत, शालीन, हल्की-फ़ुल्की परन्तु जीवंत फ़िल्मों से लोगों का मन जीत लिया। पिछले साल (दिसंबर २०१३) दुबई में फ़ारुक दुनिया से रुख़सत हुए। मुझे फ़ारुख साहब की फ़िल्में बचपन से ही बहुत अच्छी लगती थी। पास में रहने वाले सीधे-सादे लड़के का किरदार भला हमें क्यों नहीं अच्छा लगता, आखिर हम लोग भी तो उन्ही छोटे कस्बों के सीधे-सादे परिवारों के बाशिंदे थे, जहाँ माँ चूल्हा जलाती, बरतन माँजती और ताकीद करती और पिता जी दूर से झोला लटकाए पैदल काम से वापस आते।
फ़ारुक़ साहब की याद दिलाने वाले इस गीत के क़लमकार हैं मशहूर कवि शहरयार और सुरेश वाडेकर ने इसे गाया है । इस गीत में सूदूर गाँवों और कस्बों से मुम्बई-दिल्ली जैसे बड़े शहरों में रोज़गार की तलाश में आनेवाले कामगारों की ज़िन्दगी में आए अलगाव और उनके सपनों के टूटने की बात कही गई है।
गीत के बोल हैं:
सीने में जलन आँखों में तूफ़ान सा क्यों है
इस शहर में हर शख़्स परेशान सा क्यों है
दिल है तो धड़कने का बहाना कोई ढूँढे
पत्थर की तरह बेहिस\-ओ\-बेजान सा क्यों है
तनहाई की ये कौन सी मंज़िल है रफ़ीक़ों
ता\-हद्द\-ए\-नज़र एक बयाबान सा क्यों है
क्या कोई नई बात नज़र आती है हम में
आईना हमें देख के हैरान सा क्यों है ।