जगह: दिल्ली-आगरा यू.पी रोडवेज़ बस
तारीख : जनवरी 2012
ठिकाना : पीछे वाली झटकामार सीट।
हमसफर: आप पीते हैं। पेप्सी में मिली हुई है। लीजिए ना?
मैंने कहा नहीं। यू.पी. रोडवेज की बस में तो कभी नहीं।
हमसफर: थोड़ा नमकीन तो लीजिए।
मैंने थोड़ी सी मूंग की दाल उस पाँच रुपए वाले पैकट से उठा ली।
मैंने पूछा: आप क्या काम करते हैं?
हमसफर: मैं मिठाई का काम करता हुँ। दिल्ली में। आप क्या करते हैं?
मैं सरकारी नौकरी में हूँ। आगरा में।
हमसफर: आपके तो मजे हैं। सरकारी नौकरी है।
मेरे चेहरे पर हल्की सी मुस्कान तैर गई।
मैंने कहा – आपका परिवार कहाँ रहता है?
हमसफर: पूरा परिवार एटा के पास हमारे गाँव में रहता है। सिर्फ मेरे भाई और मैं यहाँ दिल्ली में मिठाई के धंधे से जुड़े हुए हैं।
मैं: आपके दादा जी ज़िन्दा हैं?
हमसफर: हाँ-हाँ पूरे तन्दुरुस्त हैं सत्तर साल की उम्र में।
मैंने कहा – हाँ बड़े नेक इंसान होंगे।
हमसफर: हाँ-हाँ बड़े ईमानदार आदमी हैं और बड़े दिमाग वाले भी।
मैं: उनके बारे में कुछ बताइए ना।
हमसफर: अरे भाई मेरा दादा तो बहुत दिमाग वाला है।
मैं: कैसे?
हमसफर: वो तो अब भी साल में पंद्रह-बीस हजार का मुनाफा कमा लेते हैं।
मैं : कैसे
हमसफर: बस साल में एक बार जीरा का व्यापार करते हैं। जीरा जानते हैं न आप?
मैं: अरे क्यूँ नहीं जानता। जानता हूँ। बताइए।
हमसफर: तो बस गर्मी के दिनों में तीन-चार क्विंटल जीरा मुनाफे में बेच देते हैं।
मैंने कहा – वो कैसे?
हमसफर: बस पहले 2 क्विंटल जीरा पूरे गाँव से जमा करते हैं। फिर उसमें पानी, गर्द (धूल) और हरा रंग साथ मिलाकर सूखा देते। फिर सूखने के बाद में उसमें घोड़े की लीद (टट्टी) बारीक पीस कर मिला देते हैं। फिर क्या महाजन का बाप भी नहीं पकड़ पाएगा कि इसमें इतनी गर्द और लीद मिली हुई है। इस तरह वे दो क्विंटल को ढाई क्विंटल बना कर मुनाफा कमा लेते हैं। महाजन भी साले कितना देख-देख कर खरीदेंगे।
मैंने कहा – यह तो बड़ा मजेदार तरीका है।
हमसफर: अरे हम लोग मेहनत करने वाले लोग हैं। ईमानदारी और शरीफी की रोटी खाते हैं।
मैं : वो तो आप सही कह रहे हैं। आपके दादाजी बड़े ईमानदार आदमी हैं।