वर्ष 1962 की बात है पंजाब के पठानकोट शहर में एक गोरखा परिवार रहा करता था। परिवार के मुखिया किशन गुरुंग शहर की एक कपड़ा मिल में काम करते थे। कुछ महीनों पहले ही उनके इकलौते बेटे राजू की भर्ती फौज में हो गई थी। इस बीच भारत-चीन सीमा पर लड़ाई शुरू हो चुकी थी। राजू भी अपनी बटालियन के साथ सीमा पर तैनात था। राजू की माँ प्रभा देवी पिछले कई महीनों से बीमार चल रही थी। दरअसल प्रभा देवी राजू के फौज में जाने के बाद ही बीमार रहने लगी थी।
फ़रवरी की एक दोपहर किशन जब खाना खाने के लिए घर आए तो पता चला कि डाकखाने के बाबू ने उन्हें बुलवाया है। झटपट खाना खा कर किशन डाकखाने जा पहुँचे। डाक-बाबू ने किशन से पूछा कि क्या उनके बेटे राजू का कोई पत्र उन्हें हाल में मिला है? किशन ने बताया कि अभी दस दिन पहले राजू का अंतर्देशीय पत्र आया था जिसे डाकबाबू ने ही पढ़कर सुनाया था। राजू ने उसमें उसके सकुशल होने की बात लिखी थी। यह ज़माना मोबाइल फ़ोन का न था, दूरस्थ पारिवारिक संप्रेषण का माध्यम केवल चिट्ठियाँ थी।
डाक-बाबू ने बताया कि फौज से एक टेलिग्राम (तार) आया है। यह सुनते ही किशन के होश फाख़्ता हो गए। यह वह समय था जब टेलिग्राम सिर्फ बुरे समाचार ले कर आते थे और वह भी त्वरित गति से। डाक-बाबू ने किशन की हालत देखते हुए कहा कि वह टेलिग्राम डाकखाने में पिछले चार दिन से आया हुआ है। लेकिन अंतत: उन्होंने उसे बुलवा ही लिया। किशन ने पूछा टेलिग्राम में क्या लिखा है? डाकबाबू ने बताया कि टेलिग्राम में लिखा है: सौरी टू इन्फॉर्म डैट योर सन सिपाही राजू गुरुंग इज़ के.आइ.ए. प्लीज़ रिपोर्ट टू डिव। डाकबाबू ने बताया – राजू के.आइ.ए मतलब किल्ड इन एक्शन हो गया है यानी लड़ाई में मारा गया है और फौज ने उन्हें डिवीजनल हेडक्वाटर में हाजिर होने के लिए कहा है। यह सुनते ही किशन के पैरो तले ज़मीन खिसक गई। इकलौती संतान के न रहने की ख़बर जान कर और हो भी क्या सकता था। भारी मन से किशन गुरुंग घर वापिस आए। उन्होंने अपनी बीमार पत्नी को कुछ नहीं बताया। रोज सुबह नहा-धोकर अपने और राजू की माँ के लिए भोजन तैयार कर कारखाने चल जाते और शाम को घर लौटते। राजू की माँ पूरे दिन बिस्तर पर ही रहती। किशन सोचते कि उनकी पत्नी पहले से ही बीमार है। ऐसी खबर सुनकर उनकी कहीं जीने की आस ही न छूट जाए।
एक हफ़्ता गुज़र गया। सोमवार को किशन कारखाने के लिए रवाना होने ही वाले थे कि दरवाज़े पर दस्तक हुई। दरवाज़ा खोला तो देखा डाक-बाबू आए हुए हैं। डाक-बाबू ने बताया कि मिलिट्री हेडक्वाटर से ग़लती हो गई थी। जिस राजू गुरुंग की मृत्यु हुई थी वह इसी ज़िले में रहने वाले कोई और सिपाही था। उन्होंने अन्य डाकघरों से संपर्क कर उस सिपाही के निवास का पता लगवा लिया है। अब वह टेलिग्राम उसके परिवार वालों को भेज दिया गया है। यह सुनकर किशन की आँखों में ख़ुशी के आँसू छलक पड़े। आख़िर उनका प्यारा बेटा राजू जीवित जो था। उसी दिन किशन ने डाकबाबू से राजू को पत्र लिखवाया कि उसकी माँ की तबीयत ज़्यादा खराब है, और वह जल्द से जल्द छुट्टी लेकर घर वापिस आ जाए।
पत्र मिलते ही राजू घर जाने के लिए बेचैन हो गया। लेकिन युद्ध के बीच छुट्टी की बाबत अपने सीओ (कमांडिंग अफ़सर) से मिलने की हिम्मत उसे नहीं पड़ी। राजू पत्र मिलने के बाद ही गुमसुम-सा रहने लगा। यह बात किसी तरह बटालियन के कमांडिंग अफ़सर तक पहुँच गई। सीओ ने उसे बुलवाया और सारा माजरा पूछा। राजू ने बताया की उसकी माँ बीमार है और उसे घर जाने के लिए छुट्टी चाहिए। सीओ ने उसे डाँटते हुए कहा कि उसने छुट्टी के लिए आवेदन क्यूँ नहीं दिया, माँ की सेवा सबसे ज़रूरी है। यह कहते हुए सीओ ने उसकी 20 दिन की छुट्टी मंज़ूर कर दी।
छुट्टी लेकर राजू पठानकोट वापिस आ गया। बेटे से मिलकर माँ-बाप दोनों की ख़ुशी का ठिकाना न रहा। घर में माँ बीमार पड़ी थी। बिस्तर से उठना उनके लिए मुश्किल था। उनका खाना बहुत कम हो गया था। अपने और माँ के लिए लिए भोजन स्वयं पिताजी ही बनाते थे। कुछ दिनों तक राजू घर में रहकर अपनी माँ की सेवा में जुटा रहा। राजू जवान लड़का था। उसका मन घर के अंदर कहाँ लगे। सुबह खा-पीकर अपने दोस्तों से मिलने निकल जाता और शाम को वापिस आता।
धीरे-धीरे राजू की छुट्टियाँ समाप्त होने को आईं। एक दिन जब राजू शाम को घर वापिस लौटा तो उसने महसूस किया कि घर में देशी घी की ख़ुशबू तैर रही है। रसोई में आज देशी घी के पराठे और आलू-गोभी की सब्ज़ी का भोजन तैयार था। राजू ने हाथ-मुँह धोकर पिताजी और अपने लिए खाना परोसा। पराठे-सब्ज़ी का एक निवाला लेने के बाद ही उसने पिताजी से पूछा – यह खाना किसने बनाया है? यह खाना तो आपके हाथ का बना हुआ नहीं लगता। खाना बहुत स्वादिष्ट है। पिताजी ने कहा – पहले खाना खा लो, कल सुबह बताऊँगा किसने बनाया है।
अगले दिन सुबह उठने पर पता चला कि राजू की माँ प्रभा देवी स्वर्गवासी हो गई हैं। रात को उनकी मृत्यु नींद में हो गई थी। राजू और उसके पिता ने बड़े दुखी मन से उनका अंतिम संस्कार संपन्न किया। अब घर में बस दो ही लोग बचे थे। आख़िरकार वह दिन आ ही गया जिस दिन राजू को वापस अपनी बटालियन में हाजिर होने के लिए यात्रा शुरू करनी थी। पिताजी ने उस दिन कारखाने से छुट्टी ले ली। वे राजू को पठानकोट रेलवे स्टेशन पर गाड़ी में बिठाने के लिए साथ आए।
राजू को हावड़ा मेल में बिठाने के दौरान पिताजी ने राजू को बताया कि देशी घी के पराठे और आलू-गोभी की सब्ज़ी का भोजन उसकी माँ ने बनाया था। उस दिन दोपहर में जब वे कारखाने से वापस आए तो उन्हें उसकी माँ ने कहा कि राजू को देशी घी के पराठे बहुत पसंद हैं और वे उसके वापिस जाने से पहले उसे अपने हाथ के बने पराठे खिलाना चाहती हैं। तब वे उसकी माँ को बिस्तर से उतार कर रसोई तक ले गए। वहाँ फ़र्श पर उनकी गोद में बैठकर उसकी माँ ने उन देशी घी के पराठों को उसके लिए बनाया था। उसकी माँ कह रही थी वह तुम्हें कई दिनों से पराठे बनाकर खिलाना चाहती थीं। ठीक अगले दिन सुबह वह तुम्हें पराठे खिलवाकर इस दुनिया से सदा के लिए चली गईं। यह सुनकर राजू की आँखों में आँसुओं की लहर बह निकली। अब रेलगाड़ी ने जाने की सीटी दे दी थी।
लेखक : अभिषेक अवतंस
(उन वृद्ध गोरखा सज्जन का धन्यवाद जो मेरे साथ अप्रैल 2012 में जम्मू-राउरकेला एक्सप्रेस ट्रेन में यात्रा कर रहे थे और जिन्होंने मुझे यह कहानी सुनाई)
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http://en.wikipedia.org/wiki/Paratha
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