
नानी तो माँ की माँ होती है। तभी तो वह इतनी प्यारी होती है। और उसके पास स्नेह मिलने की निश्चितता भी होती है। मुझे अपनी नानी की बहुत याद है। जिसके आँगन में मेरा जन्म हुआ था और गर्मी की कई छुट्टियाँ मैंने अपनी लंबी नाक वाली नानी के साथ बिताई थीं। मुझे याद है मेरी नानी का सारे दिन काम करना। आँखों पर चश्मा लगाए वो गोरे मुखड़े वाली नानी की तस्वीर अब भी मेरे मन में बसी हुई है। वही नानी जो हाथ की चक्की से गेहूँ पीसती थी। मजाल कि हाथ थकने का नाम भी ले लें। नानी पर संजीदा कविताए कम ही पढ़ने को मिलती हैं। जे.एन.यू कैंपस के मशहूर कवि स्वर्गीय रमाशंकर यादव “विद्रोही” को जे.एन.यू से पढ़ा हुआ कौन सा व्यक्ति नहीं जानता होगा। मैंने भी उनके साथ कई बार चाय पर चर्चाएँ की थीं। नानी पर उन्हीं की एक कविता अपनी नानी को चाहने वालों के लिए प्रस्तुत है:
——नानी——
……………….रमाशंकर यादव “ विद्रोही”
तो कविता नहीं कहानी है।
ये दुनिया सबकी नानी है,
और नानी के आगे ननिहाल का वर्णन अच्छा नहीं लगता।
मुझे अपने ननिहाल की बड़ी याद आती है,
आपको भी आती होगी।
एक अंधेरी कोठरी में एक गोरी सी बूढ़ी औरत,
रातों दिन जलती रहती है चिराग की तरह,
मेरे ज़ेहन में,
मेरे ख़्यालों में मेरी नानी की तस्वीर कुछ इस तरह से उभरती है,
कि जैसे की बाजरे की बाल पर गौरेया बैठी हो।
और मेरी नानी की आँखें,
उमड़ते हुए समन्दर सी लहराती उन आँखों में आज भी मैं आपाद मस्तक डूब जाता हूँ
आधी रात को दोस्तों।
और उन आँखो की कोर पर लगा हुआ काजल,
लगता था जैसे कि क्षितिज के छोर पर बादल घुमड़ रहे हों।
और मेरी नानी की नाक,
नाक नहीं पीसा की मीनार थी।
और मुँह, मुँह की मत पूछो,
मुँह की जोर थी मेरी नानी।
और जब चीखकर डाँटती थी,
तब ज़मीन इंजन की तरह हाँफने लगती थी।
जिसकी गरमाई में आसमान का लोहा पिघलता था,
सूरज की देह गरमाती थी।
दिन को धूप लगती थी,
और रात को जूड़ी आती थी।
और मेरी नानी का गला,
द्वितीया के चन्द्रमा की तरह,
मेरी नानी का गला,
पता ही नहीं चलता था,
कि गला हँसुली में फँसा है,
कि हँसुली गले में फँसी है।
लगता था कि गला गला नहीं
विधाता ने समुन्दर में सेतु बाँध दिया है।
और मेरी नानी की पीठ,
पीठ नहीं पामीर का पठार थी।
मेरी नानी की देह, देह नहीं है,
आर्मिनिया की गाँठ थी।
पामीर के पठार की तरह समतल पीठ वाली मेरी नानी,
जब कोई चीज़ उठाने के लिए जमीन पर झुकती थी,
तो लगता था कि जैसे बाल्कन झील में काकेशस की पहाड़ी झुक गई हो।
बिल्कुल इस्किमो बालक की तरह लगती थी, मेरी नानी।
और जब घर से बाहर निकलती थी, तो लगता था,
कि जैसे हिमालय से गंगा निकल रही हो।
सिर पर दही की डलिया उठाये,
जब दोनों हाथों को झुलाती हुई चलती थी,
तो लगता था कि सिर पर दुनिया उठाए हुए जा रही है,
जिसमें हमारे पुरखों का भविष्य छिपा हो।
एक आदिम निरंतरता जो अनादि से अनंत की ओर उन्मुख हो।
और मेरा जी करे कि मैं पूछूँ,
कि ओ रे बुढ़िया, तू क्या है,
आदमी कि या आदमी का पेड़?
पेड़ थी दोस्तों, मेरी नानी आदमीयत की।
जिसका कि मैं एक पत्ता हूँ।
मेरी नानी मरी नहीं है।
वह मोहनजोदड़ो के तालाब में स्नान करने गई है।
और उसकी आखिरी सीढ़ी पर अपनी धोती सूखा रही।
उसकी कुंजी वहीं कहीं खो गई है,
और वह उसे बड़ी बेचैनी के साथ खोज रही है।
मैं देखता हूँ कि मेरी नानी हिमालय पर मूंग दल रही है।
और अपनी गाय को एवरेस्ट के खूँटे से बांधे हुए है।
मैं खुशी में तालियाँ बजाना चाहता हूँ।
लेकिन यह क्या?
मेरी हथेलियों पर तो सरसों उग आई है।
मैं उसे पुकारना चाहता हूँ।
लेकिन मेरे होंठों पर तो दही जम गई है।
मैं देखता हूँ कि मेरी नानी दही की नदी में बही जा रही है।
मैं उसे पकड़ना चाहता हूँ,
लेकिन पकड़ नहीं पाता हूँ।
मैं उसे बुलाना चाहता हूँ,
लेकिन बुला नहीं पाता हूँ।
और मेरी समूची देह, एक टूटे हुए पत्ते की तरह,
थर-थर काँपने लगती है।
जो कि अब गिरा कि तब गिरा।
अब गिरा की तब गिरा।
muchhe bhut yad garni . bhut achha kaphida hai .
dhanyawaad padhne ke liye..
sab naniyon ko salam
Nani hai hi mahan