
लैंग्वेज़ इन साउथ एशिया
संपादक – ब्रज काचरू, यमुना काचरू व एस.एन. श्रीधर
केंब्रिज यूनिवर्सिटी प्रेस, वर्ष 2008, पृष्ठ – 632
दक्षिण एशिया क्षेत्र न सिर्फ एक बड़े बाज़ार के रूप में विकसित हुआ है बल्की एक समृद्ध भाषाई क्षेत्र के रूप में भी इसका नाम सुपरिचित है। दक्षिण एशिया में कुल 5 पाँच भाषा परिवारों की अनेक भाषाऎं एक विशाल जनसमुदाय द्वारा बोली जाती है। इन भाषाओं के माध्यम से ही जाति, वर्ग, व्यवसाय, क्षेत्र और धर्म से जुड़ी अस्मिताओं की पहचान होती है। दक्षिण एशियाई उपमहाद्वीप की इन्हीं विशेषताओं को ध्यान में रखते हुए इस भाषाई क्षेत्र की भाषाई स्थिती पर नए सिरे से प्रकाश डालने का कार्य ’ लैंग्वेज़ इन साउथ एशिया’ ने किया है। संपादित पुस्तक में दक्षिण एशिया की भाषाओं पर भाषावैज्ञानिक, ऎतिहासिक, समाजभाषावैज्ञानिक दृष्टि से जायजा लेने की कोशिश की गई है। पुस्तक कुल दस भागों में विभाजित है जिनमें अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त विद्वानों द्वारा लिखे गए 25 विभिन्न शोधपरक आलेखों को संग्रहित किया गया है।
दक्षिण एशिया की भाषाओं की क्रियाशील भाषाई प्रक्रियाओं, भाषाई विवादों, भाषा-आधुनिकीकरण के प्रभावों, न्यायिक तंत्र, मीडिया, सिनेमा, धर्म आदि में भाषाओं की भूमिकाओं, भाषाई राजनीति, संस्कृत की शिक्षण परंपरा से लेकर जनजातीय व अल्पसंख्यक समुदायों की भाषाओं पर विस्तार से चर्चा हुई है। दक्षिण एशियाई भाषाओं से जुड़े अंत:विषयात्मक शोध के लिए पुस्तक में पर्याप्त और बहुउपयोगी सामाग्री का संकलन हुआ है। जँहा एक ओर हिंदी की स्थिती पर यमुना काचरू का ’हिंदी-उर्दू-हिंदुस्तानी’ शीर्षक आलेख तो दूसरी ओर जनजातीय भाषाओं पर अन्विता अब्बी का आलेख सुपाठ्य है। करुमुरी वी. सुब्बाराव ने अपने आलेख में दक्षिण एशियाई भाषाओं की प्ररुप-वैज्ञानिक विशिष्टताओं को आरेखित किया है।
भाषा और युवा संस्कृति पर रुक्मिणी भाया नायर का आलेख भी अपनी अलग पहचान बनाता। भाषा-नियोजन, बहुभाषिकता, समाजभाषाविज्ञान और दक्षिण एशियाई अध्ययन के शोधार्थियों के लिए यह पुस्तक निसंदेह बहुउपयोगी व संग्रहणीय साबित होगी।
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